बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
दस
रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। लंका के मुख्य द्वार बन्द हुए दो प्रहर हो चुके थे। चौकसी के लिए परकोटे पर नियुक्त संतरी भी कई परिक्रमाएं कर अब शिथिल हो चुके थे। सामान्य स्थिति में अब तक वे सो चुके होते; किंतु इधर गुप्तचरों की गतिविधियां बढ़ गई थीं। उनमें से जाने कोई कब आ टपके। वे बाहर से भी आ सकते थे और बाहर जाने के इच्छुक भी हो सकते थे। इन गुप्तचरों के मारे संतरियों की रात की नींद में भयंकर विघ्न आ उपस्थिति हुआ था।
तोरणों के बंद हो जाने के पश्चात् तब तक नगर में कोई कार्यकलाप चलता रहता था; कहीं से प्रकाश और कहीं से ध्वनि आती रहती थी-तब भी संतरियों को जागते रहने का एक बहाना होता था; किंतु जब नगर के भीतर का भी सारा कोलाहल सो जाए, तब संतरी किसके सहारे जागें।
कुछ समय पूर्व तक लंका को किसी से भय नहीं था। यद्यपि नगर बाहर परिखा थी जिसमें जल भरा था, फिर ऊंचा और चौड़ा परकोटा था, जिस पर संतरियों की टोलियां पहरा देती थीं; तोरणों पर अनेक यंत्र लगे थे, जो शत्रुओं पर पत्थरों और बाणों की वर्षा करते थे। फिर भी प्रत्येक व्यक्ति जानता था कि यह सब अनावश्यक था। रावण के आधिपत्य के पश्चात् शत्रु लंका से दूर भागे थे, लंका की ओर कोई नहीं आया। किंतु हनुमान के आने के पश्चात् स्थिति बदल गई थी फिर सूचना आई कि राम अपनी सेना लेकर सागर के उस पार पहुंच गया है। उससे लंका की प्रजा में तो कम खलबली मची; रावण के अपने घर में कलह आरम्भ हो गया। लंका में सुना जाता था कि विभीषण जाकर राम से मिल गया है। वानरों का राजा सुग्रीव पहले ही उसके साथ था।
"आ, थोड़ी देर विश्राम कर लेते हैं।" एक संतरी ने दूसरे से कहा।
"अब विश्राम कहां है।" दूसरा बोला, "थोड़ी देर में नायक आ धमकेगा। सुना है कल एक संतरी को द्यूत खेलने के अपराध में दंडित किया गया है। वह बेचारा तो सो भी नहीं रहा था। राम की सेना क्या आई; लंका का सार्वजनिक खेल अपराध बन गया।"
"तू नया है न। इसलिए बहुत डरता है।" पहले ने कहा, "हम सब निर्भीक हैं। लंका में कोई काम नहीं करता। बस पैसा काम करता है।"
"मैं तो डरता ही हूं, क्योंकि नया-नया काम मिला है।" दूसरा बोला, "किंतु तुम्हारा राजाधिराज क्यों डरता है?"
"राजाधिराज और भय। तू नशे में तो नहीं है?"
"नहीं। नशे में तो तुम हो। अपने राजाधिराज की शक्ति के मद में भूले हो।" दूसरा बोला, "इतनी सी बात नहीं सोच सकते कि रावण डरता नहीं है तो अपनी सेना ले, सागर के उस पार जाकर राम से लड़ता क्यों नहीं? किस बात की प्रतीक्षा में बैठा है, गवाक्ष और द्वार बंद कर के? लंका के चारों द्वारों पर पहरा क्यों बढ़ाया है? नगर में सैनिक परिक्रमा क्यों करते हैं? अरे न होता उस पार, सागर के इस पार की व्यूह बांधता।"
"तू अकिंचन-सा संतरी लगा है राजाधिराज की आलोचना करने। इतनी ही राजनीति समझाता था तो यहां चाकरी करने क्यों आया। कोई मंत्री-पद संभाल...।"
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